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Friday, October 29, 2010

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अर्थ

शाब्दिक तौर पर राष्ट्रवाद एक आधुनिक ‘पद’ है। ऐसा माना जाता है कि आधुनिक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा फ्रांस की क्रांति (1789) के बाद विकसित हुई। सामाजिक विकास या राजनैतिक सिध्दांत के तौर पर राष्ट्रवाद की संकल्पना आधुनिकता की ऐतिहासिक व्याख्या हो सकती है, लेकिन मूल स्वीकार्य बात यह है कि राष्ट्रों का अस्तित्व प्राचीन काल से था।

किसी राष्ट्र की पहचान एक राष्ट्र के रूप में कैसे होती है? या दूसरे शब्दों में वे क्या घटक हैं, जिनसे राष्ट्र का निर्माण होता है? राजनैतिक विचारक एंथोनी डी. स्मिथ (जिन्होंने राष्ट्रवाद की संकल्पना पर काफी कुछ लिखा है) ने राष्ट्र को कुछ इस तरह परिभाषित किया है, ‘मानव समुदाय जिनकी अपनी मातृभूमि हो, जिनकी समान गाथाएं और इतिहास एक जैसा हो, समान संस्कृति हो, अर्थव्यवस्था एक हो और सभी सदस्यों के अधिकार व कर्तव्य समान हों।’ रूपर्ट इमर्सन ने राष्ट्र को इस तरह परिभाषित किया है, ‘एक संबध्द समुदाय जिसकी विरासत समान हों और जो एक जैसा भविष्य पसंद करते हैं।’
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी ने राष्ट्र-जन के विभिन्न घटकों का उल्लेख किया है: समान इतिहास, समान पंरपरा, शत्रु-मित्रता का भाव समान, भविष्य की आकांक्षा समान ऐसी भूमि का पुत्र संबंध समाज राष्ट्र कहलाता है।
फ्रांसीसी लेखक अर्नेस्ट रेनन(1882) के अनुसार ‘आधुनिक राष्ट्र केंद्राभिमुख घटकों की ऐतिहासिक परिणति है।’ एक जैसा अतीत गौरव, वर्तमान की एकसमान इच्छा तथा एक साथ महान कार्य के निष्पादन व उसे बेहतर करने की इच्छा, ये सभी घटक ‘जन’ बनने की आवश्यक शर्त है और ऐसे ‘जन’ की आत्मा राष्ट्र है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी ने राष्ट्र-जन के विभिन्न घटकों का उल्लेख किया है: समान इतिहास, समान पंरपरा, शत्रु-मित्रता का भाव समान, भविष्य की आकांक्षा समान ऐसी भूमि का पुत्र संबंध समाज राष्ट्र कहलाता है।

हालांकि, जब हम विश्व के इतिहास पर नजर डालते हैं, तो बहुत कुछ यह राजवंशों व साम्राज्य का इतिहास मिलता है। हम स्वतंत्र संप्रभु राजनैतिक इकाई के रूप से राष्ट्र नहीं पाते। हालांकि राष्ट्र, सांस्कृतिक अस्तित्व में रूप नहीं रहा, लेकिन पिछले पांच सौ सालों के दौरान इसका अस्तित्व स्वीकार किया जाने लगा। यूरोप पवित्र रोमन साम्राज्य के अधीन था। रोमन साम्राज्य के अधीन स्वतंत्र इकाई के रूप में फ्रांस की स्वीकृति की शुरूआत 1648 की वेस्टफेलिया संधि से मानी जाती है। इस संधि के तहत फ्रांस के राजा को पवित्र सामाज्य से धर्म की स्वतंत्रता और अपनी भाषा इस्तेमाल करने की छूट मिली। 19वीं और 20वीं शताब्दी में आधुनिक यूरोप व राज्य केंद्रित विश्व के लिए ‘वेस्टफेलियन’ एक विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। ऐसा माना जाता है कि 1648 की वेस्टफेलिया की संधि ने आधुनिक अंतर-प्रादेशीय व्यवस्था की आधारशिला रखी। यहां तक कि जब राष्ट्र-राज्य के रूप में ब्रिटेन का उदय नहीं हुआ था और इंग्लैंड में केवल राज्यतंत्र था, पिट द् यंगर ने अपील की, ‘our existence as a nation………. our very name as Englishmen.’ 1775 के अपने शब्दकोश में जॉनसन ने राष्ट्र को इस तरह परिभाषित किया है, ‘लोग जो अपनी भाषा, उत्पत्ति या सरकार के मामले में दूसरे लोगों से अलग हैं।’
प्रवासी राज्य – आस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, सिंगापुर
देशी राज्य - इंडोनेशिया, मलेशिया
प्राचीन स्थापित राज्य और आधुनिक राष्ट्र – फ्रांस और ब्रिटेन
प्राचीन राज्य और आधुनिक राष्ट्र – जापान, चीन और भारत
राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र विनाश – रूस और यूगोस्लाविया
गौरतलब है कि राष्ट्र का अस्तित्व तब भी था, जब संप्रभु राज्य नहीं थे (जैसा कि हम इस समय समझते हैं)। सरकार की अनुपस्थिति में भी राष्ट्रीय समाज का निर्माण करने वाली एक सामान्य जन संस्कृति और भाइचारे की भावना थी। ये राष्ट्रीय समुदाय सिर्फ ऐसे समुदाय नहीं थे, जिनके वंश एक समान थे, बल्कि उनकी सामान्यजन संस्कृति भी समान थी, जो उनके सामाजिक नियमों व आदर्शों को परिभाषित करती थी।

आधुनिक राष्ट्रवाद फ्रांस की क्रांति के बाद विकसित हुआ, जहां राजनैतिक इकाई के रूप में फ्रांस राष्ट्र-राज्य का उदय स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे स्पष्ट राजनीतिक सिध्दांतों पर हुआ। राष्ट्रवाद पर संपूर्ण चिंतन राष्ट्र का एक राजनैतिक इकाई के रूप में मानने लगा। यह दृष्टिकोण, राष्ट्र/राष्ट्र राज्य को आधुनिक इतिहास का उत्पाद कहने लगा। राष्ट्र राज्य के उदय से पहले राष्ट्रों के अस्तित्व को केवल जातीय ग्रुपों के रूप में माना गया। इस पर भी जोर दिया गया कि विश्व के अधिकांश राष्ट्र बहु-जातीय राष्ट्र हैं और इन्हें सोशल नेशंस के रूप में माना गया। Leo Suryadinata द्वारा संकलित पुस्तक ‘Nationalism and Globalization East and west’ में एक अमेरिकी विद्वान की टिप्पणी है कि ‘चीन वास्तव में एक ‘सिविलाइजेशन’ है, जो राष्ट्र होने का बहाना करता है।

इन परिस्थितियों में नागरिकता को राष्ट्रीयता के बराबर माना जाता है, लेकिन यहां मूलभूत अंतर है। जब कोई राष्ट्रीय समुदाय के अंग के रूप अपनी राष्ट्रीयता प्राप्त करता है, तो वह इसे जन्मजात प्राप्त करता है। यह एक सामाजिक-राजनैतिक दर्जा है। वहीं दूसरी तरफ नागरिकता कानूनी प्रक्रिया के तहत सरकार के जरिए हासिल की जाती है। जन्मजात नागरिकता मुल्क के कानूनी प्रावधानों से ही संभव है। इस प्रकार यह राजनैतिक-विधिक दर्जा है। लेकिन आज के राष्ट्र-राज्य के दौर में दोनों ‘शब्द’ एक ही अर्थ में प्रयुक्त किए जाते हैं।

संपूर्ण आधुनिक चिंतन इस दिशा में है कि केवल राष्ट्र-राज्य ही राष्ट्र हैं। संयुक्त राष्ट्र, 1945 का चार्टर सरकारों के समझौतों पर आधारित दस्तावेज है। बाद के सभी चार्टर या परिपाटी सदस्य राज्यों या सहमत सरकारों द्वारा स्वीकार किए गए। इस दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में राज्यों का हम एक रोचक वर्गीकरण एडीटर Leo Suryadinata द्वारा पुस्तक ‘Nationalism and Globalization East and west’ में पाते हैं:
चीन, भारत और जापान को प्राचीन राज्य व आधुनिक राष्ट्र के रूप में वर्गीकृत करते समय वर्गीकरण का दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है, जबकि वास्तविक वर्गीकरण इस प्रकार है, ये सभी प्राचीन राष्ट्र व नए राज्य हैं।

पूर्ववर्ती दृष्टिकोण, भारतीय इतिहास की अज्ञानता तथा वर्तमान भारत की अस्पष्ट समझ के कारण राष्ट्र के रूप में भारत की मान्यता हमेशा प्रभावित रही है। ब्रिटिश राज के दौरान हमें यह बताया गया कि उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश राज की स्थापना के कारण ‘भारत’ राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में है। साम्यवादी हमेशा यह कहते रहे कि भारत बहुत से राष्ट्रों का समुच्च है। यह बहुधा कहा गया कि भारत की कोई सामान्य संस्कृति नहीं है, बल्कि तमाम संस्कृतियों का मिलन है, जो अपनी-अपनी पहचान को बरकरार रखे हुए है। इसलिए यह कहा गया कि भारत एक समान धरोहर पर आधारित राष्ट्र नहीं है, बल्कि यह ‘सामाजिक व नागरिक’ राज्य है।

इसे भंलीभांति समझ लेना चाहिए कि यह सर्वव्यापक रूप से स्वीकार किया जा चुका है कि ‘भारत की संस्कृति चिरंतन है, जो 5000 वर्षों से भी अधिक पहले विकसित हुई। इसने आने वाली भारतीय पीढ़ियों के मानसिक क्षितिज, मूल्य व्यवस्था और जीवन शैली को विकसित किया, जो आज भी अनेक विदेशी आक्रांताओं व विपुल जनसंख्या विस्तार के बाद आश्चर्यजनक रूप से बरकरार है। यह आज भी भारतीयों व भारत के मूल लोगों को एक अलग व्यक्तित्व प्रदान करती है, जैसा कि पहले देती आई है।’
‘कल्चर एंड डेमोक्रेसी इन इंडिया- आर. सी. अग्रवाल’

सर्वोच्च न्यायालय ने डॉ. प्रदीप जैन के मामले में इस वास्तविकता की पहचान की है, जब न्या. पी. एन. भगवती ने टिप्पणी की, ‘इतिहास का यह रोचक तथ्य है कि राष्ट्र के रूप में भारत का निर्माण न तो एकसमान भाषा के आधार पर हुआ और न ही इसके भू-भाग पर एक राजनैतिक सत्ता के निरंतर अस्तित्व के कारण, बल्कि इसका आधार सदियों से विकसित हुई एक समान संस्कृति के कारण हुआ। यह एक सांस्कृतिक एकता है, देश के लोगों को एकजुट रखने वाले दूसरे बंधनों से ज्यादा मजबूत व आधारभूत, जिसने इस देश का राष्ट्र में पिरोया।’ इतिहासकार सर विसेंट स्मिथ लिखते हैं, ‘बिना किसी संदेह के, भारत के पास अन्तर्निहित मूलभूत एकता है, जो राजनैतिक प्रभुता या भौगोलिक विगलन से ज्यादा शक्तिशाली है। यह एकता जाति, धर्म, वंश, रंग, भाषा व रीति-रिवाज की तमाम विभिन्नताओं को पार करती है। यह वेद काल से ही एक पवित्र घोषणा है: ‘पृथिव्यै समुद्र पर्यन्ताया: एकराट।’
यह अन्तर्निहित सांस्कृतिक एकता, हमारी राष्ट्रीय पहचान की सभ्यतामूलक आधार के साथ-साथ चरम जीवन मूल्य हैं। यह हमारे जीवन शैली की व्याख्या करते हैं और हमारी राष्ट्रीयता की आधारशिला है। अतएव राष्ट्रवाद, जिसका हम उद्धोष करते हैं, वास्तव में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है।
यहां पर सिध्दांत व विचारधारा के रूप राष्ट्रवाद के विकास का संक्षिप्त हवाला देना उचित होगा, ‘राष्ट्रवाद की विचारधारा राष्ट्र की संस्कृति से ओतप्रोत होती है- इतिहास की पुन:खोज, देशी भाषाओं का पुनरूज्जीवन, साहित्य का विकास (खास तौर पर कविता और नाटक) और संगीत, लोकनृत्य व लोकगीत के साथ-साथ देशज कला तथा शिल्प की पुन:स्थापना।’ (एंथनी डी स्मिथ)
यह राष्ट्रवाद राजनैतिक सिध्दांत के रूप विकसित हुआ, जिसने राष्ट्र को ऐसे सामाजिक संरचना के रूप में देखा, जो एक समुदाय द्वारा एकसमान कानूनों के आधार एक निश्चित भू-भाग पर निर्मित की जाती है। इसे ‘सिविक नेशन’ के तौर पर देखा गया और लोगों के राष्ट्रप्रेम की प्रकृति को राष्ट्रवाद, जो समुदाय की बंधुत्व भावना से ज्यादा शासन की व्यवस्था से प्रेरित था।
सिध्दांत के तौर पर राष्ट्रवाद का विकास दो स्थितियों पर आधारित हैं:
• राष्ट्र के प्रति निष्ठा।
• स्वशासित राष्ट्रों का समुदाय विश्व शांति का आधार है।
विश्व में हुए हाल के बदलाव, राष्ट्रों के सांस्कृतिक आधार की नई समझ को दर्शाते हैं। पिछली शताब्दी में खासतौर पर शुरूआती दशकों में पांच साम्राज्यों के ढहने के बाद नक्शों पर लकीरें खींचकर अनेक राष्ट्रों का उदय हुआ। इसके बाद कुछ राष्ट्र साम्यवादी आधिपत्य में चले गए। सोवियत संघ के विघटन के बाद कृत्रिम सीमाएं टूटी और एकसमान धरोहर, रीति-रिवाज व मूल्यों के आधार पर बनी ऐतिहासिक एकता से नए राष्ट्रों का उदय हुआ। यह सिर्फ विखंडन नहीं था, बल्कि राष्ट्रों का उदय था, जो राष्ट्र राज्यों के भीतर अव्यक्त थे।
चीन के बारे में यह कहा जाता है कि यहां पर राष्ट्रवाद (राजनैतिक अर्थ में) एक नई अवधारणा थी और इसका उभार 19वीं शताब्दी के मध्‍य से शुरू हुआ। बतौर राष्ट्र चीन शुरू से ही समुदायों का ढीला-ढाला बंधा था, जो एकसमान जीवन शैली से जुड़ा था न कि किसी मसीहा की अपील से। अनेक विभिन्न वर्गों के साथ वे एक लोग हैं। चीन में राष्ट्रवाद की सबसे प्रमुख विशेषता है कि यह राजनैतिक से ज्यादा सांस्कृतिक है। यूगोस्लाविया का उदाहरण सुप्त राष्ट्रीय पहचान को रेखांकित करता है। सोवियत साम्राज्य के विघटन के बाद सर्ब व क्रोएट की तमाम राष्ट्रीय पहचान सामने आई। उसके बाद की हिंसा व संघर्ष तथा अमेरिकी हस्तेक्षप की चर्चा किए बगैर जो बात गौरतलब है वह है सर्ब की चेतना।
यह सर्व चेतना कोसोवा के उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है। कुछ शताब्दी पहले सर्ब तुर्कों के हाथों 1389 में कोसोवो की निर्णायक लड़ाई में पराजित होने पर दुखी थे। उस दौरान तत्कालीन यूगोस्लाविया तुर्की साम्राज्य का हिस्सा बन गया। आज भी सर्ब उसे याद करते हैं और पराजय के दिन को राष्ट्रीय शोक के रूप में मनाते हैं। यूगोस्लाविया के विघटन के बाद तीन राज्यों का उदय दरअसल, एक अलग अध्‍ययन का मामला है। लेकिन उल्लेखनीय पहलू यह है कि शताब्दियों तक राष्ट्रीय पहचान जीवित रही, हालांकि कोई राज्य इसका प्रतिनिधित्व नहीं करता था।
वैश्वीकरण के शोरगुल के बावजूद राष्ट्रवाद विश्व के राष्ट्रों के लिए एक प्रधान विचारधारा है। संसार भले ही ‘सम’ हो जाए, लेकिन राष्ट्रों की व्यक्तिगत पहचान राष्ट्रवाद की आधारशिला पर सर्वशक्तिमान सत्ता के आधिपत्य से बचाए रखेगी।

फ्रांस के नए राष्ट्रपति की घोषणा इसका उदाहरण है। चुनाव के बाद अपने पहले बयान में निकोलस सारकोजी ने वादा किया कि वह फ्रांस की पहचान व स्वाधीनता को को सुरक्षित रखेंगे। (वैश्वीकरण के आवरण में अमेरिकी आधिपत्य से देष की स्वतंत्रता की रक्षा व आतंकवाद के दबाव में बढ़ते इस्लामीकरण से देष की अस्मिता की रक्षा) यह ऐतिहासिक स्थापित तथ्य है कि एक राष्ट्र का अस्तित्व भूमि, जन व संस्कृति के त्रि-आधार पर टिका होता है। यही त्रि-आधार एक जन, एक भूमि व एक संस्कृति से राष्ट्र का निर्माण होता है। भारतीय संदर्भ में विषेशकर यही सच है कई अवसरों पर अस्पष्ट सोच के कारण संस्कृति की अवधारणा तथा धर्मनिरेपक्षता के सिध्दांत पर धुंध छा जाती है।
बाहर से आए अनेक मत भारत में पले हैं और तमाम कारणों से कुछ वर्गों ने इन्हें अपनाया भी, जिसकी कारणों की व्याख्या हम यहां पर नहीं करेंगे। लोग यह भूल जाते हैं कि हजारों छोटी, बड़ी नदियों के समागम के बाद भी गंगा की मूल धारा वही रहती है। इस देश में पूर्णरूपेण आध्‍यात्मिक स्वतंत्रता है और रीति-रिवाजों की वैभिन्यता है, लेकिन सभी में मानवीय संबंधों को निर्धारित करने वाले जीवन-मूल्य एक ही है। इस अनोखी परंपरा का आप कुछ भी नामकरण कर सकते हैं। आप इसे हिन्दू कह सकते हैं, भारतीय कह सकते हैं या सनातन या इंडियन का नाम भी दे सकते है। लेकिन वह एक ही है यह तथ्य है।
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक भारत सर्वदा से ही एक भूमि है। वे उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत के जरिए आए हों या दक्षिणी-पश्चिम से, खैबर से आए हों या केरल के जरिए, सभी ने इसे इंडिया कहा, जिसका अर्थ भारत-भूमि है। इस भूमि की चर्चा वेदों, पुराणों और बाद के साहित्यों में हुई है। महान एकीकर्ता आदि शंकराचार्य ने इस धरती के चारों कोनों पर चार मठों की स्थापना की।
इस राष्ट्र व राष्ट्र के प्रति विशुद्व प्रेम ही हमारा मूल सिध्दांत है। हम इसके लिए जीते हैं और इसके लिए मरने को सिध्द हैं। हमारी संस्कृति हमारे अस्तित्व को परिभाषित करती है, जैसा कि दीनदयाल जी ने कहा था, ‘हमारी राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक सोच का आधार हमारी संस्कृति ही है।’

हम इसका पहले ही उल्लेख कर चुके हैं कि हमारी सांस्कृतिक एकता हमारी राष्ट्रीय पहचान की सभ्यतामूलक आधारशिला है, साथ ही ये अपरिवर्तनीय जीवन मूल्य भी हैं। इस समस्त भारतीय क्षेत्र की राष्ट्रीय पहचान को हम भारतमाता के रूप में आदर देते हैं, जिसे पिछले हजारों सालों से यहां आए लोगों ने समझा।

हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक भारत सर्वदा से ही एक भूमि है। वे उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत के जरिए आए हों या दक्षिणी-पश्चिम से, खैबर से आए हों या केरल के जरिए, सभी ने इसे इंडिया कहा, जिसका अर्थ भारत-भूमि है। इस भूमि की चर्चा वेदों, पुराणों और बाद के साहित्यों में हुई है। महान एकीकर्ता आदि शंकराचार्य ने इस धरती के चारों कोनों पर चार मठों की स्थापना की।
संस्कृति की आधारशिला हमारे जीवन शैली का निर्माण करती है। यह हमें मानव-मानव के बीच, मानव व राज्य के बीच, मानव व प्रकृति के बीच तथा मानव व उदात्त ईश्वर के बीच के संबंधों के बारे में निर्देशित करती है। यह मूल्यों, व्यवहारों और सामाजिक समरसता की अलिखित संहिता का उल्लेख करती है। यहां पर हमारे अस्तित्व व उद्देश्यों में अन्तर्निहित एकता है और ऐसा हमेशा महसूस होता है। यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि मानवीय व्यवहारों की यह संहिता, जो धर्म है, विश्व में शांति व प्रसन्नता की राह दिखाएगी। यह विशाल उद्धोष है, लेकिन इस देश की यही नियति है। हटिंगटन, ‘जिन्होंने ‘क्लैश ऑफ सिविलाइजेशनस’ लिखी, का दावा है कि वर्तमान शताब्दी भी अमेरिकी शताब्दी होगी।

वे कहते हैं कि यदि पिछली शताब्दी सैनिक ताकत से अभिभूत थी, तो इस शताब्दी में अमेरिका अपनी जीवन शैली का विस्तार शक्ति से नहीं, बल्कि 1-व्यक्तिगत स्वतंत्रता, 2-लोकतंत्र, 3-मुक्त बाजार इन सिध्दांतों के जरिए करेगा। हमारा विश्वास देश की संस्कृति में है, जो विश्व को निर्देशित करेगी।
यह चार सिध्दांतों पर आधारित है:

1- विश्व के समस्त चर या अचर में जीव है, जिसमें एक ही चेतना और ऊर्जा का निवास है।
2-धर्म मानवीय व्यवहारों का दिव्य आदेश है।
3-परिवार, कुटुंब
4-सहमति।

इन मान्यताओं में हर आह्वान का समाधान है- पर्यावरण व उसकी रक्षा, नागरी कर्तव्य व सामाजिक समरसता, सामंजस्य व संघर्ष का निराकरण, कल्याण और षासन।
लेखक: प्रा. बाळ आपटे

Wednesday, October 6, 2010

My BIODATA

MY BIODATA

Shri Balavant alias Bal Apte


Father's Name  :  Shri Parashuram Apte

Mother's Name  :  Shrimati Sita Apte

Date of Birth    18 January 1939

Place of Birth    Rajgurunagar, Distt. Pune (Maharashtra)

Marital Status   Married on 28 February 1967

Spouse's Name   Shrimati Urmila Apte

Children           :  One daughter

Educational Qualification :
M.A., LL.M. Educated at University of Mumbai, Mumbai

Profession :
Lawyer/Advocate, Teacher & Educationist/Professor

Permanent Address:
Girish Building,
T.H. Kataria Road
, Mahim, Mumbai.400016 Tel. -  {022} 24376441, 24372419, Fax :24324871,

 Present Address :
C-702, Swarna Jayanti Sadan, Dr. Bishambhar Das Marg, New Delhi. 110001 Tel. {011} 23311966, Fax: 23323039,)

  E-mail     bpapte@sansad.nic.in, aptebp@gmail.com


Positions Held:
1996-98 Additional Advocate General, State of Maharashtra April 2000 Elected to Rajya Sabha May 2000 onwards Member, Zonal Railway Users Consultative Committee for the Central Railway Zone Member, Committee on Rules May 2000 - Feb. 2004 Member, Consultative Committee for the Ministry of Defence Jan. 2001 - Feb. 2004 Member, Committee on Labour and Welfare Dec. 2001 onwards Member, India-Iran Parliamentary Friendship Group Member, India-Russia Parliamentary Friendship Group Jan. 2002-May 2004 Member, Board of Governors, Nehru Yuva Kendra Sangathan Jan. 2002-2005; Member, Samsad (Court) of Visva Bharati May 2002 onwards Member, Governing Council of National Mission for Sarva Shiksha Abhiyan Feb. 2002-Feb. 2005 Member, Central Advisory Committee for Light Houses Member, Railway Convention Committee Aug. 2002 - Feb. 2004 Member, Committee on Human Resource Development Aug. 2002 - March 2006 Member, Court of the Jawaharlal Nehru University Jan. 2003-April 2006 Member, Council of National Literacy Mission Authority Nov. 2003-April 2006 Member, Central Advisory Board (S.8 Minimum Wages Act, 1948) July 2001-April 2006 Member, Central Advisory Board on Child Labour July 2004-April 2006 Nominated to the Panel of Vice-Chairmen, Rajya Sabha Aug. 2004-April 2006 and June 2006 -2007;Member, Committee on Personnel, Public Grievances, Law and Justice Aug. 2004 –April 2006, Member, General Purposes Committee May 2006 onwards; Member, Central Advisory Board of Education Sept. 2004-2006; Member, Consultative Committee for the Ministry of Civil Aviation Nov. 2004-2006; Member, Informal Consultative Committee (S) for Central Railway and Western Railways Member, Telephone Advisory Committee for MTNL, Mumbai; April 2006 Re-elected to Rajya Sabha; Member, Committee on Personnel, Public Grievances, Law and Justice June 2006 onwards; Member, Consultative Committee for the Ministry of Information and Broadcasting Sept. 2006 onwards; Member Governing Council and Executive Committee of National Mission of Sarva Shiksha Abhiyan July 2007; Vice-President, India-China Parliamentary Friendship Group May 2008 onwards Member, Committee on Rules August 2008 onwards; Member, Hindi Salahkar Samiti, Ministry of Shipping, Road Transport and Highways 2008-2010, Member Committee on Subordinate Legislation, Rajya Sabha Sept.2009 onwards; Member Hindi Salahkar Samiti for Planning Commission Aug 2010 onwards; Member, Consultative Committee for the Ministry of Defence Sept. 2009 onwards; Member,  Committee on Petitions Sept. 2010 onwards.

  Freedom Fighter   :  No

Books Published: 
(i) Educational Change, 1977, (ii) Yeshwant (in Marathi), 1988, (iii) Report on Violation of Fundamental Rights of Citizens in Ayodhya, Nov. 1990 and (iv) Supreme Court on Hindutva (ed.), 2005

Social and Cultural Activities, Literary, Artistic and
Scientific Accomplishments and other Special Interests :

Was National President, Akhil Bharatiya Vidyarthi Parishad (A.B.V.P.) and was active in A.B.V.P. for 38 years; was on Governing Council of Shikshan Prasarak Mandali, an educational institution running 20 colleges and schools for about two decades; was President, Advocates Association of Western India (A.A.W.I.), High Court, Mumbai; President, Sawarkar Darshan Pratisthan (Trust), Mumbai; Vice-President, Ram Bhau Mahalgi Prabodhni, Mumbai; Chairman, 'Srijan' Dipex Centre for Entrepreneurship Development; Founder Member, Students' Experience in Inter-State Living Trust, Mumbai; was chairman, Vidyarthi Nidhi Trust.

 Sports, Clubs, Favourite Pastimes and Recreation :
Reading and writing

 Countries Visited :
U.S.S.R. as a member of Indo-U.S.S.R. Youth Meet in 1978, China, South Korea, Panama, U.K. and U.S.A. as a member of parliamentary delegation, Germany, Switserland; attended the 119th assembly of Inter-Parliamentary Union (IPU) held at Geneva in October 2008

Other Information :
Fought against the Emergency, 1975-77; was detained under the MISA from December 1975 to February 1977; taught Law as Hon. Professor at (i) New Law College, Mumbai, for twelve years, (ii) University of Mumbai, Mumbai for twelve years; designated Senior Advocate by the High Court, Mumbai; was Member, Senate, University of Mumbai; was National Vice-President, Bharatiya Janata Party (B.J.P.) since 2002 - 2010, Member Central Parliamentary Board BJP.

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Sunday, October 3, 2010

Dimensions of Minority Appeasement

Dimensions of Minority Appeasement
                                                                       
I.         Internationally accepted definition of ‘Minority’:
            “A group of numerically inferior to the rest of the population of a state, in a non-dominant position, whose members – being nationals of the state –possess ethnic, religious or linguistic characteristics differing from those of the rest of the population and show, if only implicitly, a sense of solidarity, directed towards preserving their culture, traditions, religion or language” – Special Rapporteur Francesco Capotorti, for the Sub-Commission on Prevention of Discrimination and Protection of Minorities of the U.N.
            Definition, after a review of all earlier attempts, by A.S. Akermark (Justifications of Minority Protection in International Law : Kluwer Law International) :
            “A minority is a non-dominant, institutionalised group sharing a distinct cultural identity that it wishes to preserve.”
II.        'Minorities' as seen by the British Rule and the self-perception of the Muslim Leadership.
            Address presented to Lord Minto by Deputation of Muslim Community of India on 1-10-1906 :
            “We .... urge that the position accorded to the Mohammedan Community in any kind of representation ..... should be commensurate, not merely with their numerical strength, but also with their political importance ..... and to give due consideration to the position which they occupied in India a little more than hundred years ago ...”

            Lord Minto's reply :
            ‘.... Mohomedan Community may rest assured that their political rights and interests as a community will be safeguarded.’

III       Two distinct streams of the development of the concept of 'minority' in India :
            A         Under the British Rule
           B.       Developments in Inter-national relations  after the Great Wars and dissolution of                          empires
                        A.        Under the British Rule: Indian Constitutional Progression:
                        1) 1909 Morle –Minto Reforms:
                              Separate electoral rights to Muslims & Europeans (as minorities)
2)     1910 Census : 1 Hindus  2 Tribes
                                            3. Dalits; untouchables
3) 1916 Lucknow: Congress-League Scheme
Substantial political representation in Councils to 'minorities': only Muslims are    mentioned.
4) 1932 Communal Award, Poona Pact,   Govt. of India Act 1919
                             Govt. of India Act 1935:
                            Representation in Governance to minorities:
1.            Anglo Indians
2.            Europeans
3.            Indian Christians
4.            Parsees
5.            Sikhs
6.            Scheduled Castes
           (Earlier described as Depressed Classes)

5)                 Framing of the Constitution by Constituent Assembly
                              (Boycotted by Muslim League : and after Partition, without Muslim League):
1. Advisory Committee Report, 8.8.1947: Joint Electorates with reservation to     minorities:
                        Group A:        Anglo-Indians, Parsees & Plains-tribes men in Assam
                        Group B :       Indian Christians & Sikhs
                        Group C :       Muslims & Scheduled Castes.
                 2.   After Partition:
Advisory Committee appointed a special sub-committee and after its report, made its report to the Constituent Assembly (with the concurrence of the members of the minority communities on the committee): 11.5.1949.
      ‘The System of Reservation for minorities other than Scheduled Castes in Legislatures be abolished.’
"in the long run, it would be in the interest of all to forget that there is anything like majority or minority in this country and that in India there is only one community"
                 Sardar Patel in Constituent Assembly on 25.5.1949
B.     Developments in the International Relations:
'Minority' after World War I and dissolution of empires: 1. Ottoman    2. Czar
   3.  Astro-  hungarian & Prussian.
The League of Nations was created after the end of World War I. Versailles Peace Treaty was signed & Paris Peace Conference was convened in January 1919. The Covenant of the League of Nations was adopted on April 28, 1919.
In a way the winners, the U.S., the U.K. and some others took control of the world and with a declared objective of lasting peace and international co-operation went about establishing states with international obligations...
            As it was described, in this upheaval of history, territories were re-distributed and new borders were drawn. New territories were incorporated in already existing states, and new states were created and recognised.
            All this was done by treaties with all such states:
All this redrawing of boundaries resulted in putting people in countries to which they did not volunteer to go. And it became the duty of the system that did this to protect their rights. Hence the concept of Minority Protection.
Treaties were signed with Poland, Serbs, Croats, Slovans, Czechoslovakia, Romania, Greece, Austria, Bulgaria, Hungary and Turkey.
New States were declared = Albania, Lithuania, Latvia, Estonia, Iraq.
Thus the concept of minority protection was part of treaties under the League of Nations. And these ethnic, religious or linguistics minorities were citizens of the respective states because of their inclusion in the new boundaries of these States.
At the international level Human Rights became the subject of further discourse and rights of minorities were part of that under the subsequent U.N. System.
The issue was of day to day importance in the European situation and hence the subject matter of several European Documents, which we may not go into.
          Under the U.N. System:
            1) International Covenant on Civil and Political Rights (1966).
Art. 27: In those States in which ethnic, religious or linguistic minorities exist, persons belonging to such minorities shall not be denied the right, in community with the other members of their group, to enjoy their own culture, to profess and practice their own religion, or to use their own language.
2) Declaration on the Rights of Persons belonging to national or ethnic, religious and linguistic minorities (1992).
The preamble of this Declaration views them ' as an integral part of the development of society as a whole and within a democratic framework based on the Rule of Law.
IV.      Minority under the Indian Constitution:
            In the chapter on Fundamental Rights, Protection of Interests of minorities is enumerated under the sub-heading 'Cultural and Educational Rights' in two Articles, Article 29 and 30. The scope of these articles was enlarged by judicial pronouncements which can be justly criticized. Article 25 to 28 under the sub-heading 'Right to freedom of Religion' are sometimes, erroneously treated as part of minority protection. And in the same way secularism is erroneously equated with the rights of minorities.
It is interesting to note, without comment, the progress of the T.M.A. Pai Foundation’s Writ Petition in the Supreme Court. While examining the rights of the minority institutions to admit students without following the common entrance test criterion, the Bench raised a question asto what is a ‘minority’. The question was referred to a larger bench. Ultimately the case wants to a larger bench of eleven judges. In the process, the question 'what is a minority' was lost. Other additional five questions the 11 judge bench did not answer, one of them being what is 'religion'!
As a matter of academic interest, it may be mentioned that the ratio of this 11 judge bench decision was explained by a '5 judge bench' and that was overruled by a ruling of a '7 judge bench'!

V.        1) Notable Point regarding Muslims as a minority:
                  They do not fall under the internationally accepted definition:
They were never in a non-dominant position in this country.
They did not want protection –
They demanded rights as former rulers.
             2) Notable points regarding Christians as a minority:
      They belonged to the ruling class. They extracted the right to propagate religion          as  a   fundamental right which is not available under any Constitution of the World.
VI.      History of Appeasement:
1) During the British Rule: the Congress was over-anxious to get Muslim participation in the freedom movement, hence the concessions and appeasement policy =
·        Lucknow Pact
·        Khilaphat Movement
·         Killer of Swami Shraddhananda  Bhai Rashid for Mahatma
·        Vandemataram Abridged, Abandoned
·        Saffron Flag – not adopted
·        Constitution making – separate electorate accepted
        2) After Independence:
·        Concessions to Pakistan
·        Nehru-Liaquat Pact
·        Rann of Cutchcha
·        Kashmir
                Vote-bank politics:
·        Soft on Terrorists, Bangladeshis   
·        Denial of Legitimate Hindu Rights
               UPA steps :
·        Sachar Committee
·        Rangnath Mishra Commission
·        PM's 15 point programme
·        Minority Institutions – Legislation
·        Andhra:  Communal Reservation.
·        Aligarh :  Communal Reservation
·        Targeting Gujarat
·        Ramsetu
·        Amarnath
·        Khandhaman: Murder of    Laxmananand
·        Aligarh campuses in muslim –majority  districts from West Bengal to Kerala
·        No reservations in Minority Institutions.
VII.     Minority Protection under Article 29 & 30 of the Constitution:
1              For citizens of India
2              For linguistic and religious minorities; here there is no ethnic minority.
3              State-specific status of both.
4              Not above the Law of the Land :
5              No reverse discrimination.
(Law as laid down in the case of TMA Pai Foundation v/s State of Karnataka W P (Civil)      No. 31711993 decided on 31-10-2002) (11 judge bench orders)
VIII.   Dimensions of Minority    Appeasement:
1.      Further divisiveness, separation, ghettoisation.
2.      The purpose of minority protection is to develop a homogeneous society. The appeasement policy achieves a converse purpose of keeping them separate and fighting. It creates an intolerant minority.
3.      It is useful to ponder over the following observations of Prof. Ramesh Chandra in 'Ethnic minorities and identity politics'.
The issue of segregating national minority study modules into an elective designed to extend specific knowledge to a self-selected audience raises the issue of whether the purpose of these norms is simply to ensure access by national minorities to an education that includes their own culture or to ensure the development of a society based on a tolerant and diverse citizenry. An Organisation for Economic Cooperation and Development (OECD) report published in September 2001 suggests that 'education systems should not just be 'fair' to minorities – they should promote a spirit of equality and tolerance among ethnic and cultural groups'. In a report on minority rights in education in Estonia, Latvia, Romania and Macedonia, it is similarly concluded that:
"Learning apart does not encourage living together" and that
'There is a danger of a strictly mono-lingual /mono-religious/mono-cultural or even mono-racial approach leading, to ghettoisation of minorities.
The results of exclusive Madras-education are there for all to see.
4. A deliberate attempt to alienate the muslim minority from the mainstream has a direct impact on the threat of jihadi terror to the civilizations of the world. Ghettoisation, alienation and propagandist education breeds a sense of injury and anger : And it finds an outlet : which is provided with cool precision : which is called the cocktail of Koran with Kalashnikov.
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References:
1.      Justification of Minority Protection in International Law
-Athanasia Spiliopoulou Akermark
  Kluiver Law International, The Hague
2.      Politics in the Vernacular- Will Kymlicka, Oxford
3.      B. Shiva Rao’s The Framing of India’s Constitution Vol. 1 to 6
      Editor- Subhash Kashyap. Universals
      4.   Government of India Acts, Constitution of India
5.   Blackstone’s International Human Rights Documents
        -R.R. Ghandhi    Universals
6.  Making of India’s Constitution
         - H.R. Khanna, Eastern Book Company
7.  Thought on Religious Politics in India Vol.1 to 3
      Compiled & Edited –Pramod Shah
      Society for National Awareness, Kolkata
 8.  Constituent Assembly Debates